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Friday 1 August 2014

Sanskrit Lesson - 4

आसीत्  कस्मिश्चिद्  अधिष्ठाने हरिदत्तो नाम ब्राह्मण: . तस्य च कृषि कुर्वत: सदैव निश्फ़ला: कालोतिवर्तते . अथैकस्मिन् दिवसे स: ब्रह्मणा उष्नकालावसाने स्वक्षेत्रमध्ये वृक्ष्च्छायाम्  प्रसुप्तोनतिदूरे वल्मिकोपरि प्रसरितव्रिहत्फ़न: भीषणं भुजङ्गम् दृष्ट्वा चिन्तयामास - "नूनमेष: क्षेत्रदेवत मया कदाचिदपि न पूजिता . तेनेदं मे कृषिकर्म: विफ़लिभवति तदस्य अहं अद्य पूजां करिष्यामि .

** किसी स्थान पर हरिदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था।  वह खेती - बाड़ी करता और बाकी  का समय व्यर्थ ही जाने देता।  एक दिन गर्मी के मौसम के अंत में वह जब अपने खेत के बीचों -बीच पेड़ की छाया में लेटा  सो रहा था , तब उसने दीमक के ऊपर अपना विशाल फैन फैलाये हुए  एक भयंकर सर्प (साँप ) को देखा।  उसे देखकर वह सोचने लगा कि  निश्चय  ही यह इस खेत का देवता है।  मैंने कभी इसके पूजा - आराधना नहीं की , इसीलिए मेरे खेती का काम बेकार हुआ।  तो आज से इसकी नियमित रूप से पूजा करूँगा। 

इत्यवधार्य कुतोऽपि  क्षीरं  याचित्वा पात्रे निक्षिप्या वाल्मीकान्तिकमुपगतवा उवाच - " भो क्षेत्रपाल ! मयैतावन्तं कालं न ज्ञातं यत् त्वं अत्र वससि, तेन पूजा न कृत . तत् साम्प्रतम् क्षमस्व" इति . एवमुक्त्वा दुग्धं निवेद्य गृहाभिमुखं प्रायात् . अथ प्रातर्यावदागत्य पश्यति तावद्दीनरमेकम् पात्रे दृष्टवान्  . एवञ्च प्रतिदिनमेकाकी  समागत्य तस्मै क्षीरं ददाति एकैकञ्च्  दीनरम् गृह्णाति .

**  ऐसे सोचकर कहीं से थोड़ा दूध मांगकर एक बर्तन में उस साँप  के बिल (दीमक) के पास रख दिया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि , "हे खेत के स्वामी ! इतने समय से मुझे मालूम नहीं था कि  आप यहाँ पर रहते हैं , इसलिये  पूजा नहीं की।  इस अपराध के लिए मुझे क्षमा कीजिए।  ऐसा कहकर उसने दूध का बर्तन नैवेद्य (प्रसाद) के रूप में भोग चढ़ाकर घर की ओर  निकल पड़ा।  अगले दिन जब वह वापस आया तो  देखा कि  दूध के बर्तन में एक सोने की मुद्रा ( दीनार) पड़ी थी। 

अथैकस्मिन् दिवसे वल्मीके क्षीरंनयनाय पुत्रं निरुप्य ब्राह्मणो  ग्रामान्तरं जगाम . पुत्रॊपि क्षीरं तत्र गत्वा संस्थाप्य च गृहं समायात: दिनान्तरे तत्र गत्वा दीनरमेकम् च दृष्ट ग्रिहीत्वा चिन्तितवान् - "नूनं सौवर्णदीनारपूर्णौ  वल्मीक: . तदेनं हत्वां सर्वं एकवारं ग्रिहीश्यामि " . एव चिन्तयित्वा ब्राह्मणपुत्रॆण सर्पो लगुडेन शिरसि ताडित:.

**उसके कुछ दिन बाद ब्राह्मण को गाँव  से बाहर जाना पड़ा।  इसलिए बिल के पास नाग देवता तो दूध का भोग चढाने का काम उसने अपने बेटे को दिया।  दूध का भोग चढाने के अगले दिन जब ब्राह्मण पुत्र ने बिल के पास सोने की मुद्रा देखि तो सोचने लगा , " अवश्य ही , यह बिल पूरा का पूरा सोने की मुद्राओं से भरपूर है।  इस साँप  को मार दूँ तो एक ही बार में सारी  मुद्राएं मेरी हो जायेंगी"।  यह सोचकर उसने एक लाठी से साँप  के सिर  पर प्रहार किया। 


तत : कथमपि दैववशादमुक्तजीवित क्रुध : सर्प: तम्  तीव्रविशदशनै: अदश्त् . सद्य स: ब्राह्मणपुत्र: पञ्चत्वमुपागत : . शरणागतान् जीवान् य: जन:  न रक्षति . तस्य एव परिणामं भवति .

**  पर भाग्यवश वः सर्प बच गया और क्रोधित हो उसने ब्राह्मण्  के बेते को अपने नुकीले, विष  भरे दन्त से काटा  , जिस कारण वः तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो गया.

जो मनुष्य अपने शरण मे आये हुए लोग या जिवो  कि रक्ष नहि करते, उनकी  यही  गति होती  है .

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